संत-असंत वन्दना
इस अध्याय में तुलसीदास जी ने संतों की महिमा और असंतों के प्रभाव का विरोध किया है, जो धर्म और समाज दोनों के लिए महत्वपूर्ण है।
श्लोक 1
संस्कृत:
सन्ताः सदा पुण्यकर्मणः परमो धर्मसाधकाः। तेषां वन्दना करोमि हृदयेन सदा नित्यम्॥
भावार्थ:
यह श्लोक संतों के पुण्य कर्मों और धर्म की साधना का वर्णन करता है।
श्लोक 2
संस्कृत:
असंताः पतिताः कृतघ्नाः निःसत्त्वाः च दुःखदाः। तेषां त्यागं करोमि सदा सत्सङ्गे संगतिम्॥
भावार्थ:
यहाँ असंतों के पतन और उनसे दूर रहने की महत्ता बताई गई है।
श्लोक 3
संस्कृत:
संतानां चरणकमले वसति मोक्षदायकः प्रभुः। असंतानां पथेषु दुःखं तथा कलहं समृद्धिम्॥
भावार्थ:
यह श्लोक संतों के साथ मोक्ष की प्राप्ति और असंतों के साथ कलह का वर्णन करता है।
श्लोक 4
संस्कृत:
संताः सदाचारिणः सन्ति सुखदाः जनहिते। असंताः कलहकारिणः सन्ति दुःखसंसाधनाः॥
भावार्थ:
यहाँ संतों के सदाचार और असंतों के कलहकार होने की व्याख्या है।
श्लोक 5
संस्कृत:
संतानां वन्दनं करोमि प्रीतेन हृदयसहितम्। असंतानां त्यागं कुरु धर्मे सत्ये निश्चये॥
भावार्थ:
यह श्लोक संतों के प्रति श्रद्धा और असंतों से दूर रहने की सलाह देता है।
श्लोक 6
संस्कृत:
संताः सद्भिः पूज्यन्ते लोकानां कल्याणकारिणः। असंताः निन्दिताः सदा जनानां दुःखदायकाः॥
भावार्थ:
यहाँ संतों के कल्याणकारी और असंतों के दुःखदायक होने की बात कही गई है।
श्लोक 7
संस्कृत:
संत-असंत-विवेकं कुरु सदा मनसि स्मरन्। धर्मपथं गतिं च यान्ति सत्कर्मिणः न संशयः॥
भावार्थ:
यह श्लोक विवेक से संत और असंत को पहचानने और सत्कर्म के मार्ग पर चलने का निर्देश देता है।