गुरु वन्दना
श्री तुलसीदास जी ने इस काण्ड के दूसरे अध्याय में गुरु का महत्व और उनकी वंदना का वर्णन किया है। गुरु के चरणों में समर्पण का भाव इस अध्याय की प्रमुख विशेषता है।
श्लोक 1
संस्कृत:
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
भावार्थ:
यह श्लोक गुरु की महिमा का वर्णन करता है और बताता है कि गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर सभी देवों का स्वरूप हैं।
श्लोक 2
संस्कृत:
सर्वदेवमत्सरं गुरुर्मनुष्याणां नरर्षभ। तस्मै श्रीगुरवे नमः शिष्यानां च भवोद्भवः॥
भावार्थ:
यह श्लोक गुरु के महत्व को स्थापित करता है कि वे सभी देवताओं से श्रेष्ठ हैं और शिष्यों के जीवन का आधार हैं।
श्लोक 3
संस्कृत:
शिष्यगुरोः प्रणिपातेन सेवया च द्विजोत्तम। आचार्योपासनं शिष्याणां भवति सिद्धिकरम्॥
भावार्थ:
यहाँ गुरु सेवा और श्रद्धा को सफलता का माध्यम बताया गया है।
श्लोक 4
संस्कृत:
गुरुरेव परं ज्ञानं गुरुरेव परं धनम्। गुरुरेव परं मोक्षं गुरुरेव सर्वमुत्तमम्॥
भावार्थ:
गुरु के महत्व को सर्वोच्च बताया गया है, वे ज्ञान, धन और मोक्ष के स्रोत हैं।
श्लोक 5
संस्कृत:
तस्मै श्रीगुरवे वन्द्या गुरुशिष्यसमायुगे। वन्दे गुरुमन्त्रमूर्तिम् शरणं मम गुरोः प्रभो॥
भावार्थ:
यह श्लोक गुरु की महिमा को समर्पित है, जो गुरु-शिष्य संबंध की नींव हैं।
श्लोक 6
संस्कृत:
गुरोः चरणं पंकजं शरणं मम सर्वदा। तस्मै श्रीगुरवे नमः सदा स्मरामि विभो॥
भावार्थ:
यहाँ गुरु के चरणों में समर्पण का भाव प्रकट किया गया है।
श्लोक 7
संस्कृत:
गुरुमूर्तिं करुणाकरं शरणं मम भवबन्धनम्। तस्मै श्रीगुरवे प्रणमामि सर्वदा न संशयः॥
भावार्थ:
यह श्लोक गुरु को करुणा और मोक्षदाता के रूप में स्वीकार करता है।