प्रजा का प्रेम
इस अध्याय में राजा और प्रजा के बीच के प्रेम और श्रद्धा का वर्णन है। यह दर्शाता है कि कैसे एक सच्चा शासक अपने प्रजाजन के हित और सुख-शांति के लिए समर्पित रहता है, और प्रजा उसके प्रति अपार प्रेम और सम्मान रखती है।
श्लोक 1
संस्कृत:
राजा सेवक जन सदा हितकारी। प्रजा प्रेम से भरत मन विचारि॥
भावार्थ:
सच्चा शासक और उसकी प्रजा के बीच अटूट प्रेम और सेवा भाव होता है।
श्लोक 2
संस्कृत:
प्रजा हिते कर्तव्य फलदायक। राजा चरण कमल हरषित भायक॥
भावार्थ:
प्रजा की भक्ति और प्यार राजा के कार्यों से और बढ़ता है।
श्लोक 3
संस्कृत:
जन मन निहारें राजा विभूषित। करुणा भाव से भरें हिय निर्मलित॥
भावार्थ:
प्रजा का प्रेम राजा के प्रति समर्पण और श्रद्धा का परिचायक है।
श्लोक 4
संस्कृत:
राजा दुःख में सहायक सदा। प्रजा भक्ति से करें समरसा॥
भावार्थ:
शासक और प्रजा का रिश्ता विश्वास और प्रेम पर आधारित होता है।
श्लोक 5
संस्कृत:
सर्व जन हिते मगन जन मानस। राजा सेवा में लगे हिय भाव विशेष॥
भावार्थ:
सभी की भलाई के लिए एकजुट होकर काम करना प्रेम की पहचान है।
श्लोक 6
संस्कृत:
प्रजा राजा प्रेम अपार मनाय। मिल-जुल कर सुख-समृद्धि बढ़ाय॥
भावार्थ:
राजा-प्रजा का प्रेम सामंजस्य और विकास का मूल आधार है।