वसिष्ठ का धर्म उपदेश
इस अध्याय में ऋषि वसिष्ठ द्वारा धर्म, कर्तव्य, और जीवन के सही मार्ग का उपदेश दिया गया है। वे सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों की महत्ता को समझाते हैं।
श्लोक 1
संस्कृत:
धर्मेणैव हि जगति स्थिरं सर्वं भवेत्। यतः सत्त्वं च पुण्यं च धर्म एव परमो नरः॥
भावार्थ:
धर्म ही जीवन और समाज की असली नींव है।
श्लोक 2
संस्कृत:
कर्तव्यं धर्मो हि जनानां जीवनं च तद्वत्। निःस्वार्थो हि सच्चरित्रः धर्मपालनं मतम्॥
भावार्थ:
धर्म पालन स्वार्थहीन होना चाहिए, तभी वह सच्चा माना जाता है।
श्लोक 3
संस्कृत:
न्यायोऽयं धर्मश्चैत स्यात् सत्येन सह संयुतः। अनृतं त्यजेद् ज्ञानेन प्रजाः पालयेद्यथा॥
भावार्थ:
सत्य और न्याय के साथ ही धर्म संपूर्ण होता है।
श्लोक 4
संस्कृत:
मित्रं च शत्रुं च ज्ञात्वा धर्मेण च तत्त्वतः। समं हि तु पालयेत् सर्वं लोकहिताय च॥
भावार्थ:
धर्म की राह पर चलकर सबका हित करना श्रेष्ठ होता है।
श्लोक 5
संस्कृत:
सत्येनैव हि धर्मेण जगत्स्थायि सदा। मिथ्याभाषा तु नश्यति धर्मो न हि लभ्यते॥
भावार्थ:
सत्य और धर्म को त्यागकर कोई स्थायी सफलता नहीं मिलती।
श्लोक 6
संस्कृत:
धर्मो हि सुलभः सर्वेभ्यः पुण्येषु च साधु। आत्मनः संरक्षणार्थं लोकहिताय च सदा॥
भावार्थ:
धर्म स्वयं की और समाज की रक्षा का माध्यम है।
श्लोक 7
संस्कृत:
कर्तव्यं नित्यं तत्त्वतः धर्मं यः समाचरेत्। स न शोकसंतप्तः स्यात् सुखी च परमो नृपः॥
भावार्थ:
धर्म पालन से व्यक्ति और राजा दोनों का जीवन खुशहाल होता है।
श्लोक 8
संस्कृत:
अहिंसा सत्यं तपः शौचं दया च परं तपः। धर्मेण युक्तः स नित्यं तिष्ठति महत्सुखम्॥
भावार्थ:
इन गुणों के बिना धर्म पूर्ण नहीं होता।
श्लोक 9
संस्कृत:
धर्मेणैव च समाजः सुसंस्कृतो भवेत्। यत्र धर्मो नास्ति तत्र न हि सुखमस्ति कदाचन॥
भावार्थ:
धर्म समाज की संस्कृति और सुख-शांति की नींव है।
श्लोक 10
संस्कृत:
धर्मपालनं स्वधर्मं परहितं च समाहितः। स एव नरो जितः स्यात् विजयो न हि कदाचन॥
भावार्थ:
धर्म और परहित की रक्षा से सच्ची जीत मिलती है।