लोगोलोक में राम

राजा जनक का यज्ञ आयोजन

इस अध्याय में राजा जनक द्वारा आयोजित भव्य यज्ञ का वर्णन है, जिसमें देश-देशांतर से ऋषि, मुनि और राजाओं को आमंत्रित किया गया। यह यज्ञ केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समागम भी था, जिसमें सीता स्वयंवर की भी पृष्ठभूमि निर्मित होती है।

श्लोक 1

संस्कृत:

जनक यज्ञ करन मन माहीं। बोलि बोलि सब मुनि सन्ह कहाहीं॥

भावार्थ:

राजा जनक ने यह यज्ञ बड़े विधि-विधान से करने की ठानी और ऋषियों को निमंत्रण दिया।

श्लोक 2

संस्कृत:

नृप समेटे सकल समाजा। करै यज्ञ बहु विधि अनुराजा॥

भावार्थ:

जनक ने इस यज्ञ को एक महोत्सव के रूप में संपन्न करने की योजना बनाई।

श्लोक 3

संस्कृत:

ऋषि मुनि तपसी सब आवा। ब्रह्मबोध महि यज्ञ सुहावा॥

भावार्थ:

देश भर के ज्ञानी और तपस्वी जन इस आयोजन में शामिल हुए।

श्लोक 4

संस्कृत:

वेद पुराण श्रुति उपदेशा। सजी सभा संतनि समवेशा॥

भावार्थ:

यज्ञ केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि ज्ञान और धर्म का भी केंद्र बना।

श्लोक 5

संस्कृत:

करत सुमिरन जनक दिन राती। सगुन भगति नित करत बाराती॥

भावार्थ:

राजा जनक स्वयं भक्तिभाव में लीन रहकर आयोजन को सार्थक बनाते हैं।

श्लोक 6

संस्कृत:

सजे नगरु जनु इंद्रपुरी सोभा। सभा मंडप बहु सुर सरि रोभा॥

भावार्थ:

नगर की सजावट और मंडपों का वैभव अलौकिक प्रतीत होता था।

श्लोक 7

संस्कृत:

सभा बिचारत धर्म मुनि ग्यानी। करत प्रशंसा राम निधि बानी॥

भावार्थ:

सभा में श्रीराम की चर्चा भी स्वाभाविक रूप से होने लगी।

श्लोक 8

संस्कृत:

जनकु देखत मुनि संमुख आये। रूप राम लखन लखि हरषाए॥

भावार्थ:

श्रीराम और लक्ष्मण के आगमन से जनक का मन प्रसन्नता से भर गया।

श्लोक 9

संस्कृत:

बोलि प्रीति मग सिय वर खोजा। कहहु नाथ यों कोउ सोउ राजा॥

भावार्थ:

जनक ने यज्ञ में सीता के स्वयंवर की शर्त की घोषणा की।