जनक की शंका
इस अध्याय में राजा जनक के मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि क्या अब पृथ्वी वीरों से रहित हो गई है। यज्ञमंडप में उपस्थित सभी राजाओं और वीरों के असफल प्रयासों के बाद भी श्रीराम की ओर से कोई पहल न होने पर जनक के मन में चिंता और निराशा जन्म लेती है।
श्लोक 1
संस्कृत:
कहि जनक सुकृती केहि केरा। जथा लाभ संतोषि न हेरा॥
भावार्थ:
जनक धर्म की गिरती स्थिति पर चिंतित होकर सवाल उठाते हैं।
श्लोक 2
संस्कृत:
वीर विहीन मही भय बानी। धनुषु देखि सब भए बिमानी॥
भावार्थ:
जनक को लगता है कि संसार में अब कोई योग्य पुरुष शेष नहीं रहा।
श्लोक 3
संस्कृत:
रामचंद्र सम देखत सुहावा। पर नहिं उठत बचनु कहावा॥
भावार्थ:
जनक को आश्चर्य है कि राम जैसे वीर भी अब तक मौन क्यों हैं।
श्लोक 4
संस्कृत:
सकल सभहिं उर अंतर जानी। बोले बचन धर्म निधि सानी॥
भावार्थ:
जनक अब सभा में अपनी शंका को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं।
श्लोक 5
संस्कृत:
सुनहु सकल मुनि ब्राह्मन भ्राता। अब न रह्यउ धरम कर नाता॥
भावार्थ:
जनक को यह प्रतीत होता है कि धर्म और वीरता का युग लुप्त हो गया है।
श्लोक 6
संस्कृत:
दोसु मोहि पर कीन्हहु सबही। कहउँ सत्य भजि सरन सबही॥
भावार्थ:
जनक अपनी प्रतिज्ञा पर पछताते हैं, क्योंकि कोई भी वीर धनुष उठाने में सफल नहीं हुआ।