तुलसीदास का आत्मनिवेदन
इस अध्याय में तुलसीदास जी अपनी आत्मा का निवेदन करते हैं, जहाँ वे ईश्वर के प्रति अपनी पूरी भक्ति, विनम्रता और आत्मसमर्पण प्रकट करते हैं।
श्लोक 1
संस्कृत:
हे राम दया करहु मोहि अनाथा। तेरे चरणन मेँ राखु अपनी जाति॥
भावार्थ:
पूर्ण विनम्रता और समर्पण के साथ प्रभु से कृपा की प्रार्थना।
श्लोक 2
संस्कृत:
मन मति तन धन सब कुछ तुम्हरे लिए। प्रभु कृपा बिना न पावहु सुख कहीं॥
भावार्थ:
समस्त जीवन और साधनों को ईश्वर के लिए समर्पित करना।
श्लोक 3
संस्कृत:
अहं तु मात्र दास तुम्हारो चरण। करूणा करहु विनती बारम्बार॥
भावार्थ:
अहंकार त्यागकर पूर्ण समर्पण और विनय।
श्लोक 4
संस्कृत:
जगत में दुखी ज्यों झरता वृक्ष। दीन दुखी करहु सन्तोष प्रभो॥
भावार्थ:
जीवन की कठिनाइयों में शांति और संतोष की प्रार्थना।
श्लोक 5
संस्कृत:
तुम बिनु कहूँ न कछु जीवन में। बनहु कृपालु मोरे सुखदाता॥
भावार्थ:
ईश्वर के बिना जीवन की निरर्थकता और उनके स्नेह की आवश्यकता।