दशरथ की प्रसन्नता
इस अध्याय में राजा दशरथ का हर्ष उल्लासपूर्वक चित्रित किया गया है। पुत्र प्राप्ति, राज्य की समृद्धि और प्रजा की संतुष्टि उनके आनंद का कारण बनती है। यह प्रसंग पिता की भावनाओं, जिम्मेदारियों और उनके मनोभावों का सजीव चित्रण है।
श्लोक 1
संस्कृत:
जनमे जब राम लखन भरत साया। हर्षित भयउ रघुनायक राजा॥
भावार्थ:
पुत्रों का जन्म दशरथ के जीवन की सबसे बड़ी प्रसन्नता बन गया।
श्लोक 2
संस्कृत:
दीन दुखन हित मन अनुरागा। राम लखन पर सहज सुहागा॥
भावार्थ:
राजा का करुणामय स्वभाव और पुत्रों से सच्चा प्रेम उजागर होता है।
श्लोक 3
संस्कृत:
राज भवन भयो मंगल साजा। बाजे झंझर ढोल सब राजा॥
भावार्थ:
प्रसन्नता पूरे अयोध्या में उत्सव का रूप ले लेती है।
श्लोक 4
संस्कृत:
दान देत सब ब्राह्मण जोगी। जनु हरष सरिता बह बिन रोगी॥
भावार्थ:
प्रसन्नता का प्रकटीकरण दान और पुण्य में होता है।
श्लोक 5
संस्कृत:
सकल नगर आनंद मगन भयउ। दशरथ हिय हरष सम न कहउ॥
भावार्थ:
राजा की खुशी, नगर के हर नागरिक की खुशी बन जाती है।
श्लोक 6
संस्कृत:
देखि सुतन मुख चंद के नाना। पुलकित देह, दृग बहे सलाना॥
भावार्थ:
पिता का भावनात्मक प्रेम अपने चरम पर था।
श्लोक 7
संस्कृत:
राज धर्म करु सुत मन माहीं। बोलत नयन बहे जल छाहीं॥
भावार्थ:
प्रसन्नता के साथ, जिम्मेदारी का बोध भी उनके मन में है।