ऋषि वशिष्ठ का उपदेश
इस अध्याय में ऋषि वशिष्ठ, श्रीराम को राजधर्म, नीति और जीवन के गूढ़ तत्वों का उपदेश देते हैं। यह संवाद केवल एक गुरू और शिष्य का नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए जीवन जीने की मर्यादा का शाश्वत पाठ है। इस उपदेश में त्याग, सेवा, संयम और धर्म की पराकाष्ठा दर्शाई गई है।
श्लोक 1
संस्कृत:
वशिष्ठ बोले वचन सुधा से। नीति धर्म के सार गगन पासे॥
भावार्थ:
गुरु वशिष्ठ का उपदेश राम के जीवन की दिशा तय करता है।
श्लोक 2
संस्कृत:
राजा धर्मधर अनुगामी। प्रजा सुख हेतु रहे अभिरामी॥
भावार्थ:
राजधर्म सेवा और न्याय की भावना पर आधारित होना चाहिए।
श्लोक 3
संस्कृत:
छोड़हि क्रोध मोह मद माया। लेहु सत्य दृढ़ धर्म सुधाया॥
भावार्थ:
एक आदर्श जीवन के लिए आंतरिक विकारों से मुक्त होना आवश्यक है।
श्लोक 4
संस्कृत:
सेवा करहु जन हित लागी। नाहीं त पद होइ दुख भागी॥
भावार्थ:
राज्यपद अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व है।
श्लोक 5
संस्कृत:
धीरज धरहु समय सुभाओ। नीति सदा मन राखहु चाओ॥
भावार्थ:
धैर्य और नीति, शासक के दो प्रमुख गुण हैं।
श्लोक 6
संस्कृत:
मातु-पिता गुर सेव न माने। तजि पद नृप कबहुँ सुख नाने॥
भावार्थ:
संस्कार ही शक्ति का आधार हैं।
श्लोक 7
संस्कृत:
संत संग धरमु उपजाई। दुख दारिद्र्य दूरि सिधाई॥
भावार्थ:
सत्संग आत्मबल का स्रोत है।
श्लोक 8
संस्कृत:
अगम ग्यान तजहु अभिमाना। जानहु जीवन देह बिराना॥
भावार्थ:
ज्ञान विनम्रता से ही फलित होता है।
श्लोक 9
संस्कृत:
राम सुनी गुरु वचनि सुहाई। धरम नीति दृढ़ मन समाई॥
भावार्थ:
राम का आदर्श शिष्यत्व – सुनना, समझना और जीना।
श्लोक 10
संस्कृत:
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
भावार्थ:
अंत में वशिष्ठ राम के संकल्प को ब्रह्मतुल्य मानकर उसे स्वीकारते हैं।