जनक का हर्ष
इस अध्याय में राजा जनक शिव धनुष भंग की घटना के बाद हर्ष और गर्व से भर जाते हैं। वे सभा में श्रीराम के पराक्रम की सराहना करते हुए अपने वचनों से राम को सीता के योग्य घोषित करते हैं और सबके सामने यह प्रस्ताव रखते हैं कि यह विवाह धरती पर दिव्यता की पुनः स्थापना है।
श्लोक 1
संस्कृत:
मुदित मन जनक बोलि बहोरी। सुनहु सकल मुनि ब्राह्मन भोरे॥
भावार्थ:
जनक अपनी प्रसन्नता प्रकट करने के लिए सबके समक्ष बोलते हैं।
श्लोक 2
संस्कृत:
मिल्यो वरु आजु रामु सुभाऊ। जनकु कहै पुनि पुनि हरषाऊ॥
भावार्थ:
जनक राम को अपनी पुत्री के लिए सबसे योग्य वर मानते हैं।
श्लोक 3
संस्कृत:
जौं जग तातें कोऊ अधिकाई। सोइ न राम सम धरनिधाई॥
भावार्थ:
जनक श्रीराम को समस्त पृथ्वी में अद्वितीय मानते हैं।
श्लोक 4
संस्कृत:
रामु भगत बिप्र हितकारी। तिन्ह कर हित लागि अवतारी॥
भावार्थ:
जनक राम के चरित्र को भगवान के रूप में देखते हैं।
श्लोक 5
संस्कृत:
सीय सुअवसर पाएउ आजू। जासु जनम सफल सब काजू॥
भावार्थ:
जनक को लगता है कि सीता का जीवन अब पूर्ण हुआ है।
श्लोक 6
संस्कृत:
बर बिचारउँ मन बहु भाँती। सियाराम सम को नहिं सांती॥
भावार्थ:
जनक ने राम के सद्गुणों का गहन विचार कर उन्हें सर्वश्रेष्ठ पाया।
श्लोक 7
संस्कृत:
राम रूप गुन वंस विचारू। जिन्ह के बापु दसरथु पियारू॥
भावार्थ:
जनक हर दृष्टि से राम को आदर्श पाते हैं — व्यक्तिगत, पारिवारिक और आध्यात्मिक रूप में।
श्लोक 8
संस्कृत:
देखि राम कहु तजि अब मोही। सीय बिनयु सुनहु सब सोही॥
भावार्थ:
जनक अब विवाह प्रस्ताव की ओर संकेत करते हैं, जो आगे के अध्याय में विस्तृत होगा।