लोकहित में राम
इस अध्याय में भगवान श्रीराम के उस स्वरूप का चित्रण है जहाँ वे जनकल्याण को अपने व्यक्तिगत हितों से भी ऊपर रखते हैं। उनका आचरण, निर्णय और व्यवहार सदैव समाज के हित में होता है।
श्लोक 1
संस्कृत:
प्रजा सुखाय नृपाल भवनु। रामु सदा लोकहित रतनु॥
भावार्थ:
राम राजधर्म को जनकल्याण से जोड़ते हैं।
श्लोक 2
संस्कृत:
त्यागे सिंहासन जन हित लागि। वन गमन कीन्ह न मानी त्यागी॥
भावार्थ:
राम अपने अधिकारों का त्याग कर जनकल्याण को प्राथमिकता देते हैं।
श्लोक 3
संस्कृत:
नारी मान राखे जग माहीं। सीता की खोज साँच बताहीं॥
भावार्थ:
राम नारी सम्मान को समाज का मूल स्तंभ मानते हैं।
श्लोक 4
संस्कृत:
बंधु त्यागि प्रिय करतब करहीं। लोक रीति पालन करि फरहीं॥
भावार्थ:
उनकी नीति में निजी भावनाओं से बढ़कर जननीति का स्थान है।
श्लोक 5
संस्कृत:
शत्रु मरे नहिं द्वेष बढ़ावा। दया करहिं जो धर्म सुहावा॥
भावार्थ:
उनका हर कार्य धर्म और दया के संतुलन से होता है।
श्लोक 6
संस्कृत:
राम राज जहाँ दुख नहिं कोई। लोक सकल सुख मगन न सोई॥
भावार्थ:
राम का शासन आदर्श समाज की परिकल्पना को साकार करता है।