लोगोलोक में राम

नारद का श्राप

इस अध्याय में नारद मुनि, भगवान की माया को न समझ पाने के कारण क्षुब्ध होकर भगवान विष्णु को श्राप देते हैं। यह प्रसंग भक्त और भगवान के संबंध की गहराई, मोह का प्रभाव, और एक सच्चे साधक की भावना को उजागर करता है। नारद के श्राप में भी भक्ति और आत्मबोध का बीज छिपा है, जो आगे चलकर भगवान राम की लीला का कारण बनता है।

श्लोक 1

संस्कृत:

जासु मोह बस हृदय अंधारा। होइ विवेक न संत विचारा॥

भावार्थ:

मोह में फंसा हुआ मन सत्य और असत्य का भेद नहीं कर पाता।

श्लोक 2

संस्कृत:

माया मोहि कीन्हसि भारी। तासु फल अब पावसि प्यारी॥

भावार्थ:

नारद अपने अपमान और मोहवश भगवान को श्राप देने लगते हैं।

श्लोक 3

संस्कृत:

नर तनु धरि धरि दुख भोगिहि। नारद बचन सत्य करि लोगिहि॥

भावार्थ:

नारद विष्णु को श्राप देते हैं कि वह मनुष्य रूप में कष्ट भोगे।

श्लोक 4

संस्कृत:

स्त्री विरह दुख सहि-सहि रोइहि। मम श्राप तें पुनि सुख होइहि॥

भावार्थ:

नारद का श्राप अंततः श्रीराम की लीला का आधार बनता है।

श्लोक 5

संस्कृत:

हरषि हरि श्राप मुनि सुनीना। कहेउ तुम्हार चरित मैं लीना॥

भावार्थ:

भगवान श्राप को भी प्रेमपूर्वक स्वीकार करते हैं।

श्लोक 6

संस्कृत:

मुनि लजाए प्रेम लखि प्रीती। हरि पद पंकज बंदे धीती॥

भावार्थ:

अंततः नारद को अपनी भूल का बोध हुआ और वे विनम्र हो गए।