राजा दशरथ का लौटना
इस अध्याय में राजा दशरथ विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए अपने पुत्रों को सौंपकर अयोध्या लौटते हैं। यह प्रसंग राजा के कर्तव्य, विश्वास और गुरु आज्ञा के प्रति श्रद्धा को दर्शाता है। दशरथ का लौटना केवल शारीरिक नहीं, बल्कि एक पिता का आत्मबलिदान और धर्मपालन का प्रतीक भी है।
श्लोक 1
संस्कृत:
गुरु आज्ञा सुनि मन मुसकाए। रघुपति सहित नगर नृप आए॥
भावार्थ:
राजा दशरथ गुरु विश्वामित्र की आज्ञा का पालन करते हुए वापस अयोध्या लौटते हैं।
श्लोक 2
संस्कृत:
गुरु पद बंदि गए नृप फेरे। मन अति हरषु नयन न घेरे॥
भावार्थ:
राजा ने अपने पुत्रों को छोड़ने का निर्णय तो लिया, पर मन से वे विचलित थे।
श्लोक 3
संस्कृत:
रामु लखन सँग मुनि पठाए। दशरथ हृदय बिचार न आए॥
भावार्थ:
राजा ने कर्तव्य पालन किया, पर एक पिता का हृदय पुत्र-वियोग से पीड़ित था।
श्लोक 4
संस्कृत:
नगर लोग सब करत बड़ाई। राम लखन बिनु भए अकुलाई॥
भावार्थ:
अयोध्या में सभी को राम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति खलने लगी।
श्लोक 5
संस्कृत:
रानी सब निज भवन पठाई। नृप चिन्हत सुर साज बनाई॥
भावार्थ:
राजा दशरथ मन ही मन इस लीला को ईश्वरीय योजना समझने लगे।
श्लोक 6
संस्कृत:
हरष बिषाद हृदय महं भयउ। रघुपति बिनु नयन अँध भएउ॥
भावार्थ:
दशरथ के लिए यह स्थिति अत्यंत भावनात्मक और कठिन थी।
श्लोक 7
संस्कृत:
धीरज धरि मन कीन्ह बिचारा। राम करहिं यशु ब्रह्म अपारा॥
भावार्थ:
राजा दशरथ ने राम के प्रति पूर्ण आस्था रखकर स्वयं को संभाला।