नारद मोह कथा
इस अध्याय में नारद मुनि के अहंकार और भगवान विष्णु द्वारा उनकी परीक्षा का वर्णन है। यह कथा दर्शाती है कि कैसे अहंकार ज्ञान को ढक सकता है, और परमात्मा करुणा पूर्वक भक्तों को उनकी भूलों का बोध कराते हैं। नारद मोह की कथा साधकों के लिए विनम्रता और आत्मबोध का अमूल्य संदेश देती है।
श्लोक 1
संस्कृत:
नारद मुनि संतन हित लागे। भ्रम भ्रमंति हरि कथा सुनागे॥
भावार्थ:
नारद मुनि हरि भक्ति में लीन होकर सत्संग और ज्ञान का प्रचार करते हैं।
श्लोक 2
संस्कृत:
एक दिन निज गौरव माने। कहेउ मोहि न भावइ प्राने॥
भावार्थ:
नारद के भीतर अहंकार जाग्रत हो गया कि वे अब माया से अछूते हैं।
श्लोक 3
संस्कृत:
हरि सों बोले मुनि अभिमाना। मोह न मोहि कहेउ भगवाना॥
भावार्थ:
अहंकारवश नारद भगवान से भी अपना वैराग्य सिद्ध करने लगे।
श्लोक 4
संस्कृत:
हरि मुसकाए सुनि मुनि बानी। मोह बस होइहि मति ग्यानी॥
भावार्थ:
भगवान ने विनम्रता से कहा कि मोह सभी को प्रभावित कर सकता है।
श्लोक 5
संस्कृत:
हरि रचेउ माया करि ठगिनी। नारद मुनि देखेउ युवतिनी॥
भावार्थ:
भगवान ने नारद की परीक्षा के लिए मोहजाल रच दिया।
श्लोक 6
संस्कृत:
मोह बस मुनि बिवाहु चहावा। हरि बिनु जतन न बिआह बनावा॥
भावार्थ:
नारद का मन सांसारिक प्रेम में उलझ गया।
श्लोक 7
संस्कृत:
माया हरि की प्रबल अनूपा। जानि मुनि तब हरिहिं करि भूपा॥
भावार्थ:
नारद का मोह भंग हुआ और उन्होंने भगवान के चरणों में विनम्रता दिखाई।
श्लोक 8
संस्कृत:
मुनि हरिपद कमल मनु लागा। मोह ग्यान तें अधिकु अनुरागा॥
भावार्थ:
माया का बोध ही सच्चे भक्ति मार्ग का द्वार है।