विश्वामित्र का राज्य त्याग
इस अध्याय में विश्वामित्र द्वारा अपने राजपद और सांसारिक ऐश्वर्य को त्यागकर तपस्या और ज्ञान की ओर प्रवृत्त होने का प्रेरक प्रसंग वर्णित है। यह त्याग शक्ति से भरा हुआ है, जहाँ एक राजर्षि धर्म, तप और ब्रह्मविद्या के मार्ग को चुनता है। उनका यह निर्णय मानवता के लिए तप और ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है।
श्लोक 1
संस्कृत:
राज सयान समुझि मन माहीं। छोड़ि दियो सब मोह कुसाहीं॥
भावार्थ:
विश्वामित्र ने भोग-विलास से ऊपर उठकर त्याग का मार्ग चुना।
श्लोक 2
संस्कृत:
धन बल तेज प्रजा परित्यागा। सम समर सब लाज अनागा॥
भावार्थ:
एक राजा का यह सर्वोच्च त्याग विरले ही देखने को मिलता है।
श्लोक 3
संस्कृत:
वन पथ गहि धीरज धरि राखा। तापस चित सब ठौर तिन्ह राखा॥
भावार्थ:
राजा विश्वामित्र अब ऋषि बनने की दिशा में अग्रसर हुए।
श्लोक 4
संस्कृत:
सिद्ध मिले बटु दीन्ह आशीषा। कहे सुत तप करहु निशीषा॥
भावार्थ:
महर्षियों ने विश्वामित्र के इस त्याग की सराहना की।
श्लोक 5
संस्कृत:
राजा भयउ ब्रह्म ऋषि ग्यानी। तेज तप सम सुत प्रज्ञानी॥
भावार्थ:
विश्वामित्र का यह रूप एक युगांतकारी परिवर्तन था।